रांची। झारखंड में पिछले एक महीने से चल रहे सियासी संग्राम का एक अध्याय पूरा हो गया. राज्य की हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली महागठबंधन की सरकार ने विधानसभा से विशवास मत हासिल कर लिया है. अबतक चले इस राजनीतिक संग्राम में भाजपा पूरी तरह से पस्त दिखी तो सदन से विशवास मत हासिल कर यूपीए मस्त है. अब सबकी निगाहें राजभवन पर टिकी हुई है. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट मामले में राज्यपाल का क्या निर्णय आता है, यह राज्य की राजनीति को नयी धार दे सकती है. जानकारी के अनुसार राज्यपाल आज दिल्ली से वापस लौटेंगे. हालांकि राज्यपाल के लौटने की सूचना अभी तक आधिकारिक तौर पर प्राप्त नहीं हुई है. कहा यह जा रहा है कि 7 सितम्बर को राज्यपाल का निर्णय आ सकता है.
सदन के अन्दर और बाहर हेमंत की रणनीति का भाजपा नहीं निकाल सकी काट
राज्य के राजनीति की पूरी घटनाक्रम को देखें तो हेमंत सोरेन का पलड़ा भारी रहा. सदन के अन्दर की बात करें या सदन के बाहर की, हेमंत की रणनीति का काट भाजपा नहीं निकाल सकी. इसकी मुख्य वजह भाजपा की कमजोर रणनीति रही. पूरे घटनाक्रम में जैसा हेमंत सोरेन ने चाहा, भाजपा को वैसे नचाया. कैश कांड में फंसे अपने तीन विधायकों पर कार्रवाई कर सबसे पहले यह सन्देश दिया कि इधर-उधर करने पर कठोर एक्शन लेने से पीछे नहीं हटेंगे. विश्वास मत के दौरान सदन की कार्यवाही के समय भी भाजपा के विधायक बिना तैयारी के दिखे. सदन में एनडीए पूरी तरह अस्त-व्यस्त और पस्त दिखा. इसकी न कोई मुकम्मल तैयारी दिखी और ना ही कारगर रणनीति. भाजपा के सदस्यों के चेहरे पर आत्मविश्वास की कमी साफ दिखाई दे रही थी. रणनीति का अभाव ऐसा था कि विरोध स्वरूप वेल में घुस रहे भाजपा के विधायकों को एक-दूसरे का साथ मिलने में भी कमी झलकती रही. सत्ता पक्ष की आवाज को दबाने के लिए एनडीए के सदस्यों ने हंगामे को हथियार बनाया जबकि सत्ता पक्ष के विधायक चाहे वे झामुमो के हों या कांग्रेस के सभी ने सलीके से अपनी बातों को सदन में रखा. उस समय भाजपा की रणनीतिक विफलता की पराकाष्ठा दिखी, जब हेमंत सोरेन के पूरे प्रहार को सहने के बाद, इसके सदस्य चुपके से मतदान के समय निकल कर बाहर आ गए और मीडिया के सामने दहाड़ने लगे. भाजपा की तरफ से विश्वास मत पर बोलने के लिए नीलकंठ सिंह मुंडा को पुकारा गया. लेकिन उनकी तैयारी इतनी घिसी-पिटी थी कि वे उन्हीं पुरानी बातों को दुहराते रहे, जो पिछले एक महीने से अन्य भाजपा नेता उठा रहे हैं. बीच-बीच में उनके भाषण का क्रम भी टूटते रहा. एक भी विषय को नीलकंठ सिंह मुंडा ने तार्किक तरीके से सदन में नहीं रखा. संवैधानिक पहलुओं के भी मजबूती के साथ नहीं रखा. वहीँ यूपीए के विधायकों ने तार्किक तरीके से सदन में अपनी बातों को रखा. जमकर राजनीतिक प्रहार किया. झामुमो के सुदिव्य कुमार सोनू हों, या कांग्रेस की दीपिका पाण्डेय सिंह या प्रदीप यादव सभी ने मजबूती से भाजपा को कठघरे के खड़ा किया. यूपीए के इन नेताओं द्वारा अपने भाषण में उठाए गए विषयों पर भाजपा के नेता तार्किक ढंग से जवाब नहीं दे सके.
बड़ा सवाल: क्या आगे भी यूपीए में एकजुटता कायम रहेगी, दोबारा नहीं लेना पड़ेगा विश्वास मत ?
सदन में विश्वास मत के दौरान एकजुटता दिखाकर यूपीए ने एक सन्देश तो दे दिया है लेकिन अभी भी बड़ा सवाल यह है कि क्या यह एकजुटता आगे भी कायम रहेगी और उन्हें अगले छह महीने तक सदन का विश्वास मत नहीं लेना होगा. झारखंड विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष इन्दर सिंह नामधारी का कहना है कि हेमंत सरकार के द्वारा सदन में विश्वास मत हासिल कर लेने से मामले का पटाक्षेप हो गया ऐसा नहीं है. अभी भी राज्यपाल का फैसला नहीं आया है. राज्यपाल का फैसला यदि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ आता है तो नियमतः उन्हें फिर से सदन से विश्वास लेना होगा. उन्होंने कहा कि अगर हेमंत सोरेन की सिर्फ विधानसभा की सदस्यता समाप्त होती है तो उन्हें सीएम पद से इस्तीफा देना होगा. महागठबंधन नए सिरे से फिर उन्हें नेता चुन सकता है. फिर वे सीएम बन सकते हैं. तब वर्त्तमान विश्वास मत हासिल करने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा. उन्हें फिर विश्वास मत पाना होगा. छह महीने में चुनाव भी जीतना होगा. वहीं अगर सदस्यता खत्म व चुनाव लड़ने से वंचित होते हैं तो जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 9ए के अनुसार यदि वे अयोग्य हुए तो उन्हें पद से इस्तीफा देना होगा. वे कोर्ट जा सकते हैं. सरकार के पास बहुमत है, इसलिए चेहरा बदल जाएगा. नयी सरकार बनने से सीएम को विश्वास मत पाना होगा. भले ही कुछ दिन पहले हासिल किया हो. चुकी सरकार किसी एकल पार्टी की नहीं है बल्कि महागठबंधन की सरकार है ऐसे में मुख्यमंत्री महागठबंधन के विभिन्न दलों के संयुक्त रूप से निर्वाचित नेता होंगे. इसलिए राज्यपाल उन्हें नेता निर्वाचित होने और सरकार गठन के बाद सदन का विश्वास मत हासिल करने का निर्देश देंगे. साफ़ कहा कि पांच सितम्बर को विश्वास मत हासिल करने का प्रभाव नयी सरकार के गठन के बाद होनेवाले विश्वास मत पर किसी भी दृष्टिकोण से नहीं पडेगा.